भारत में 200 वर्ष पहले आँखों की सर्जरी होती थी...शीर्षक देखकर आप निश्चित ही चौंके होंगे ना!!! बिलकुल, अक्सर यही होता है जब हम भारत के किसी प्राचीन ज्ञान अथवा इतिहास के किसी विद्वान के बारे में बताते हैं तो सहसा विश्वास ही नहीं होता. क्योंकि भारतीय संस्कृति और इतिहास की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण ऐसा बना दिया गया है
मानो हम कुछ हैं ही नहीं, जो भी हमें मिला है वह सिर्फ और सिर्फ पश्चिम और अंग्रेज विद्वानों की देन है. जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है. भारत के ही कई ग्रंथों एवं गूढ़ भाषा में मनीषियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों से पश्चिम ने बहुत ज्ञान प्राप्त किया है... परन्तु "गुलाम मानसिकता" के कारण हमने अपने ही ज्ञान और विद्वानों को भुला दिया है.
भारत के दक्षिण में स्थित है तंजावूर. छत्रपति शिवाजी महाराज ने यहाँ सन 1675 में मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी तथा उनके भाई वेंकोजी को इसकी कमान सौंपी थी. तंजावूर में मराठा शासन लगभग अठारहवीं शताब्दी के अंत तक रहा. इसी दौरान एक विद्वान राजा हुए जिनका नाम था "राजा सरफोजी". इन्होंने भी इस कालखंड के एक टुकड़े 1798 से 1832 तक यहाँ शासन किया. राजा सरफोजी को "नयन रोग" विशेषज्ञ माना जाता था. चेन्नई के प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सालय "शंकरा नेत्रालय" के नयन विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं प्रयोगशाला सहायकों की एक टीम ने डॉक्टर आर नागस्वामी (जो तमिलनाडु सरकार के आर्कियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष तथा कांचीपुरम विवि के सेवानिवृत्त कुलपति थे) के साथ मिलकर राजा सरफोजी के वंशज श्री बाबा भोंसले से मिले. भोंसले साहब के पास राजा सरफोजी द्वारा उस जमाने में चिकित्सा किए गए रोगियों के पर्चे मिले जो हाथ से मोड़ी और प्राकृत भाषा में लिखे हुए थे. इन हस्तलिखित पर्चों को इन्डियन जर्नल ऑफ औप्थैल्मिक में प्रकाशित किया गया.
प्राप्त रिकॉर्ड के अनुसार राजा सरफोजी "धनवंतरी महल" के नाम से आँखों का अस्पताल चलाते थे जहाँ उनके सहायक एक अंग्रेज डॉक्टर मैक्बीन थे. शंकर नेत्रालय के निदेशक डॉक्टर ज्योतिर्मय बिस्वास ने बताया कि इस वर्ष दुबई में आयोजित विश्व औपथेल्मोलौजी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हमने इसी विषय पर अपना रिसर्च पेपर प्रस्तुत किया और विशेषज्ञों ने माना कि नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में सारा क्रेडिट अक्सर यूरोपीय चिकित्सकों को दे दिया जाता है जबकि भारत में उस काल में की जाने वाले आई-सर्जरी को कोई स्थान ही नहीं है. डॉक्टर बिस्वास एवं शंकरा नेत्रालय चेन्नई की टीम ने मराठा शासक राजा सरफोजी के कालखंड की हस्तलिखित प्रतिलिपियों में पाँच वर्ष से साठ वर्ष के 44 मरीजों का स्पष्ट रिकॉर्ड प्राप्त किया. प्राप्त अंतिम रिकॉर्ड के अनुसार राजा सर्फोजी ने 9 सितम्बर 1827 को एक ऑपरेशन किया था, जिसमें किसी "विशिष्ट नीले रंग की गोली" का ज़िक्र है. इस विशिष्ट गोली का ज़िक्र इससे पहले भी कई बार आया हुआ है, परन्तु इस दवाई की संरचना एवं इसमें प्रयुक्त रसायनों के बारे में कोई नहीं जानता. राजा सरफोजी द्वारा आँखों के ऑपरेशन के बाद इस नीली गोली के चार डोज़ दिए जाने के सबूत भी मिलते हैं.
प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार ऑपरेशन में बेलाडोना पट्टी, मछली का तेल, चौक पावडर तथा पिपरमेंट के उपयोग का उल्लेख मिलता है. साथ ही जो मरीज उन दिनों ऑपरेशन के लिए राजी हो जाते थे, उन्हें ठीक होने के बाद प्रोत्साहन राशि एवं ईनाम के रूप में "पूरे दो रूपए" दिए जाते थे, जो उन दिनों भारी भरकम राशि मानी जाती थी. कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय इतिहास और संस्कृति में ऐसा बहुत कुछ छिपा हुआ है (बल्कि जानबूझकर छिपाया गया है) जिसे जानने-समझने और जनता तक पहुँचाने की जरूरत है... अन्यथा पश्चिमी और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा भारतीयों को खामख्वाह "हीनभावना" से ग्रसित रखे जाने का जो षडयंत्र रचा गया है उसे छिन्न-भिन्न कैसे किया जाएगा... (आजकल के बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि "मराठा साम्राज्य", और "विजयनगरम साम्राज्य" नाम का एक विशाल शौर्यपूर्ण इतिहास मौजूद है... वे तो सिर्फ मुग़ल साम्राज्य के बारे में जानते हैं...).
महामारी की सवारी
भारत में महामारियों को भगाने के कैसे कैसे उपाय किए जाते थे, इसकी जानकारी सुश्रुत, चरक, वागभट्ट आदि ने तो दी ही है, लेकिन देहात से लेकर रियासतों की राजधानी तक में जैसी प्रथाएं थीं, उनको विदेशी यात्रियों ने देखा और जो दस्तावेज़, विवरण लिखे, उन पर आज वैज्ञानिक दौर में बिल्कुल यकीं नहीं होता!
कर्नल जेम्स टॉड ने हैजा जैसी महामारी के दौरान किए जाने वाले उपायों को देखा और दिलचस्पी से लिखा भी। इस महामारी में उसके चार दोस्त मारे गए थे और आत्मिक मित्र बूंदी के राव भी लाख उपाय पर नहीं बच सके।
बात 1817 की है। तब कोटा में महामारी की दस्तक को जानकर महाराव ने पुजारियों को बुलाया और सलाह ली। उन्होंने हैजा महामारी की सवारी निकालकर चंबल पार उतारने का उपाय किया। काली गाड़ी बनवाई गई। दो काली बोरियों में अनाज भरकर रखा ताकि महामारी भूखी न जाए... काले ही बैल जुतवाए और कालेे कपड़ों में कलू को बिठाकर हो हल्ला करते हुए लोगों ने महामारी को चंबल पार उतारा... पुजारियों ने कह दिया, अब वापस इधर नहीं आना।
उधर, बूंदी राव ने कोटा वालों की चाल देखी तो अपने पुजारियों को बुलाया और हर हाल में बीमारी का आगमन रोकने का उपाय करने को कहा। पुजारियों ने राज्य में जितना गंगाजल था, सब जमा किया। एक मटका छेद कर उस रास्ते पर लगाया जिधर से बीमारी अा सकती थी। बूंद-बूंद पानी टपकता रहता और पुजारी राहत की सांस लेने लगे लेकिन महामारी का हमला सीधे महल पर हुआ...।
... कैसे ताज्जुब की बात है कि क्या महामारियों को ऐसे कथित अंध विश्वास भरे उपायों से रोकना संभव था? लेकिन तब नासिक, सागर, गुजरात में भी ऐसे उपाय किए जा थे और इंग्लैंड भी ऐसे उपायों में शामिल था! नासिक में तो हैजा की देवी की निकासी की जाती थी...!
हां, तब वायरस व्याधि नहीं थी।
क्या आपको ऐसी किसी घटना की जानकारी है?
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सन्दर्भ :
• चरक और सुश्रुत संहिता,
• ईशानशिवगुरुदेवपद्धति,
• एनाल्स एंड एंटीक्विटिज़ ऑफ राजस्थान,
• महामारी : ऐतिहासिक सिंहावलोकन
जनपदोद्ध्वंस : महामारी
कोरोना के बहाने कुछ बातें कहने का मन है जो भारतीय मनीषा ने लगभग ढाई हजार साल पहले भोगकर आत्मसात् कीं और उसके अनुभवों को संसार के सामने आचरण के उद्देश्य से रखा। महामारी का समय सामान्य काल नहीं होता, यह मज़ाक का दौर भी नहीं बल्कि चिंता की वेला है जिसे चरक ने सबसे पहले जनपदोद्ध्वंस नाम दिया है। इसका सामान्य आशय वही है जो हम अभी - अभी चीन और इटली के अर्थ में लेे रहे हैं। देशध्वंस का मतलब उस काल में बहुत भयानक व्याधि का परिणाम था जिसे बाद में अपिडेमिक भी कहा गया। आज पैनडेमिक है!
गंगा के तटवर्ती वनों में घूमते हुए पुनर्वसु ने शिष्यों से जो कहा, चरक ने उसे बहुत उपयोगी माना क्योंकि कांपिल्य में महामारी को लेकर एक समय बड़ी संगति रखी गई थी और उसमें महामारी पर सर्व दृष्टि विमर्श किया गया। संसार में किसी महामारी पर यह कदाचित पहला और महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। यकीन नहीं होगा कि पुनर्वसु ने साफ कह दिया था कि एक एक औषधि को परख कर सुरक्षित कर दिया जाए क्योंकि महामारी के समय दवा से उसके रस, गुण, शक्ति सब गुम हो जाते हैं यानि कि दवा तब दवा नहीं रहती!
स्मरण रखना चाहिए कि महामारी के समय सब असामान्य हो जाता है : नक्षत्र, ग्रह, चन्द्र, सूर्य की स्थितियां...दिशाओं में प्रकृति और ऋतुओं में विकार, दवाइयों में प्रभाव शून्यता, जन आतंक और अधिकांश लोग रोगग्रस्त, रोग भी ऐसे कि जिनका उपचार संभव नहीं हो। सब कुछ अस्वाभाविक होता है। (विमानस्थान, 3, 4)
चरक ने इसे राज्य के नष्ट होने का भाव अनेक विशेषणों से दिया है और वराह ने "मरकी" नाम दिया। वराह को मालूम था कि परिधावी नामक संवत्सर का उत्तरार्ध नाशकारी प्रवृत्ति लेकर आता है और व्यवस्था का संकट खड़ा हो जाता है : देशनाशो नृपहानि। हालांकि अब बीत गया है। दशम युग के संवत्सरों में अधिकतर कलह, रोग, मरक (मरी) और नाश काल के रूप में रेखांकित किया है। प्रभव, राक्षस भी न्यारे नहीं। चरक इस अर्थ में पहले से ही उपचार की व्यवस्था करके रखने की बात कहते हैं : भैषज्येषु सम्यग्विहितेषु सम्यक् चावचारितेषु जनपदोद्ध्वंसकराणां विकाराणां...।
वायरस वाले रोगों के प्रसंग में यह बहुत आश्चर्यकारक है कि महामारी की उत्पत्ति और प्रसार के चार कारण हैं : विकृत वायु, विकृत जल, विकृत देश और विकृत काल। चरक ने जिस तरह इनके भेद, लक्षण और सर्वेक्षण आधारित चरण दिए हैं, वे आज के विज्ञान के अनुसार है।
आत्रेय से अग्निवेश संवाद के अन्तर्गत यह भी कहा है कि क्यों मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृति, आहार, शरीर, बल, सात्मय, सत्व और आयु के होते हैं तो फिर एक ही साथ, एक ही समय में उनका देशव्यापी महामारी से क्योंकर विनाश होता है? महामारी इति से बढ़कर है और महा अकाल है जिसे "गर्गसंहिता" में उपसर्ग के लक्षणों सहित बताया गया है। इसके शांति उपायों पर मध्य काल तक पूरी ताकत लगी।
चरक ने क्यों खुलकर कहा कि स्पर्श, वायु और खाद्य पदार्थों के दोषपूर्ण होने से उपजी महामारी से देश नष्ट होते हैं : तत उद्ध्वंसन्ते जनपदा: स्पृश्याभ्यवहार्य दोषात्। यह सब बहुत लंबा विषय है। लेकिन, हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि मानवता की सुरक्षा के लिए सात्विक आहार, विहार, आचरण हो, हितकर स्थान पर रहें, महर्षियों की चर्चा हो और उन उपायों में ही जीवन लगाएं जिनसे जीवन रक्षा के प्रयास तय हों और परस्पर विश्वास का भाव बढ़े। अपनी रक्षा स्वयं करें। वाग्भट्ट और चरक का मत है :
इत्येतद् भेषजं प्रोक्तमायुष: परिपालनम्।
येषामनियतो मृत्युस्तस्मिन्काले सुदारुणे।।
सभी के लिए स्वास्थ्य की कोटि कोटि मंगल कामनाएं : सर्वे संतु निरामया।
(शिल्पशास्त्र में आयुर्वेद)
अरिष्ट : मृत्यु के आसन्नचिह्न
🌿 श्रीकृष्ण "जुगनू"
संतों, गुरुओं की वाणी से लेकर ज्योतिष तक अकाल या काल जन्य मृत्यु के लक्षणों पर विचार हुआ है और हम व हमारे पूर्वज प्राय: ऐसी बातें करते ही हैं कि अमुक व्यक्ति ने बहुत पहने अपने निधन की घोषणा कर दी थी! आयुर्वेद ने चिकित्सा के अनेक मत, सिद्धांत, निदान और उपचार देने के बाद मृत्यु के चिह्न भी लिखे हैं और चिकित्सकों से अपेक्षा की है कि वे उनकी पुख्ता जानकारी रखें। ये अरिष्ट अथवा रिष्ट कहे जाते हैं :
एतानि पूर्वरूपाणि य: सम्यगवबुध्यते।
स एषामनुबन्धं च फलं च ज्ञातुमर्हति।।
महर्षि चरक ने महामारी के लक्षणों और उपचार के बाद इन्द्रियस्थान में अरिष्ट विषय का जो वर्णन किया है, वह निदान और उपचार के निर्धारण से पूर्व असहायता का बड़ा विवरण है और विश्व के सामने रोग और काल के बीच की गली में कर्तव्य की पहली अपील लगता है।
चरक ने बहुत विशद रूप से इसे लिखा है और अपेक्षा की है कि जन जन इसको जाने, यही कारण है कि स्वरोदय और योग विज्ञान के विषय जिस किसी पुराण में मिलते हैं, वहां अरिष्ट विषय भी मामूली तौर पर लिखा गया है, शिव पुराण हो या गरुड़ पुराण।
काल के इन लक्षणों को वर्ण, स्वर, गंध रस और स्पर्श आदि के संदर्भ से लिखा गया है और इन पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत कही गई है। बाण भट्ट जब प्रभाकर वर्धन के अंत काल का वर्णन करता है तो अरिष्ट विषय का संकेत करता है। हमें ध्यान देना चाहिए कि कुल 47 विषय है जिनसे अरिष्ट को परखा जाता है। इनमें शरीर के लक्षणों के साथ ही स्मरण शक्ति, आकृति, प्रकृति, विकृति, बल, ग्लानि, मेधा, हर्ष, रौक्ष्य, रोग का आरम्भ, आहार, विहार, आहार का परिणाम, व्याधि सांकर्य, अपाय ( रोग का सहसा छूट जाना) व्याधि, व्याधि का पूर्व रूप, वेदना, उपद्रव, छाया, प्रति छाया, स्वप्न दर्शन, दूताधिकार, भेषज विकार युक्ति... आदि आते हैं। ( चरक. इन्द्रिय. 1, 3)
यह बहुत विषद विवरण है लेकिन हमें प्रकृति, अपने आसपास के परिवेश पर जरूर ध्यान देना चाहिए जो जातिप्रसक्ता, कुलप्रसाक्ता, देशानुपातिनी, कालानुपातिनी, वयोनुपातिनी और प्रत्यात्मनियता होती है- यह सब ज्ञान हमारे लिए इसलिए होना चाहिए कि हम प्रकृति में बदलाव को देखते हुए आने वाले संकटों को जान सकें। नित नई कथित खोजों और अपेक्षाओं और देय लक्ष्य के पीछे भागदौड़ ने हमें आते - जाते प्राकृतिक बदलावों को जानने का अवसर ही छीन लिया।
हम भूल ही गए हैं कि भौतिक अरिष्ट, पंच इन्द्रिय और मानसिक अरिष्ट से लेकर सद्योमरणीय, तीन दिनात्मक, छह दिनात्मक, पाक्षिक, मासिक, सार्धमासिक, छह मासिक और वार्षिक अरिष्ट क्या और कैसे होते हैं?
यह सच है कि संसार को आयु का ज्ञान बांटने वाले देश भारत के पास रोग और काल के ज्ञान की बड़ी विरासत रही लेकिन वह उतनी ही पिछड़ भी गई... क्या हम अब भी नहीं देखना चाहेंगे? यह ज्ञान हमें सबसे पहले सचेत करता है और फिर उपचार : लक्षणमायुष: क्ष्यस्य भवति। यह हमारे प्रज्ञा-अपराध को आड़े हाथों भी लेता है : अरिष्टं वाऽप्य संबुद्घमेतत् प्रज्ञापराधजम्।।
इस ज्ञान को आगे बढ़ाएं...।
सर्वे संतु निरामया।
शीतला - चेचक की देवी की विश्वयात्रा !
साथियो ! होली के बाद सातवें दिन शीतला सप्तमी का पर्व पडता है और एक दिन पहले महिलाएं बासोडा या ठंडी सामग्री की तैयारी करती हैं। रात में खाना बनाएंगी और सुबह शीतला की पूजा करके, कथा सुनकर सबको बासोडा या ठंडा खाना खिलाएंगी। अपने हाथ से उस दिन आग जलाने जैसा काेई काम नहीं करेंगी। उसके पीछे उसका मकसद यह रहता है कि बच्चे बच्चियों को कभी चेचक जैसी बीमारी नहीं हो। शीतला के गीत गाए जाएंगे -
सीळी सीळी ए म्हारी सीतळा ए माय..
बारुडा रखवाळी सोहे सीतला ए माय...।"
इस महाव्याधि का उन्मूलन हुए बरस हो गए मगर शीतलादेवी अब भी पूजा के अन्तर्गत है। साल में चैत्री कृष्णा सप्तमी और भादौ कृष्णा सप्तमी को शीतला की पूजा की जाती है। पश्चिमी भारत ही नहीं, पूरे देश में शीतला की पूजा की जाती है, कई नामों से इसकी प्रतिष्ठा है मगर यह ब्राह्मण देवी नहीं मानी गई अन्यथा इसके भी पूजा विधान प्रारंभिक शास्त्रों में लिखे होते।
इस देवी का स्वरूप 12वीं सदी में संपादित हुए स्कन्दपुराण में आया है और मंत्र के रूप में इसको दिगम्बरा, रासभ या गधे पर सवार, मार्जनी-झाडू व कलश लिए तथा शूर्प से अलंकृत बताई गई है -
नमामि शीतलादेवी रासभस्था दिगम्बरा।
मार्जनी कलशोपेता शूर्पालंकृता मस्तका।।
मध्यकाल में इसकी मूर्ति बनाने के लक्षण मेवाड में 1487 ईस्वी में रचित वास्तुमंजरी आदि में लिखे गए। ( रुपाधिकार : श्रीकृष्ण जुगनू)
प्रयाग के रामसुन्दर ने शीतला चालीसा को लिखा जबकि 1900 में डब्ल्यू. जे. विल्किंस ने "हिंदू माइथोलॉजी, वैदिक एंड पुराणिक" में इस देवी की मान्यताओं का सिंहावलोकन किया है। दुनिया के कोई सात धर्मों में इसकी अलग अलग नामों से मान्यता मिलती है।
जापान आदि में यह सोपान देव के नाम से योरूवा धर्म में है।
हमारे यहां बौद्धकाल में "हारितिदेवी" के नाम से एक मातृका की पूजा की जाती थी, जिसकी गोद में बालक होता था, बालकों की रक्षा के लिए इसको पूजा जाता था। गांधार से तीसरी सदी की हारिति की मूर्तियां भी मिली हैं। ऐसा माना जाता है कि इस तरह की मान्यताओं का निकास इस्रायल, पेलेस्टाइन से हुआ। खासकर उन व्यापारियों से इसको पहचाना गया जो बर्तन आदि वस्तुओं का विपणन करने निकलते थे।
यह चेचक जिसे smallpox की देवी मानी जाती है। चेचक की व्याधि पूतना के नाम से पृथक नहीं है। भारत में इस व्याधि का प्रमाण 1500 ईसा पूर्व से खोजा गया है जबकि मिस्र में इसके प्रमाण 3000 वर्ष पूर्व, 1145 ईसापूर्व के मिलते हैं। वहां के राजा रामेस्सेस पंचम और उसकी रानी की जो ममी मिली है, उसमें इस रोग का प्रमाण है। चीन में इसका प्रमाण 1122 ईसापूर्व का मिला है, चीन से यह व्याधि कोरिया होकर 735-737 में जापान पहुंची तो महामारी की तरह फैली और एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई।
भारत में औरंगजेब के शासनकाल के 16-17 सितंबर, 1667 ई. के एक फरमान से ज्ञात होता है कि शीतला के स्थानकों पर हिंदुओं और मुस्लिमों की भीड लग जाती थी, उनको नियंत्रित करने के लिहाज से राजाज्ञा जारी करनी पड़ी थी। गांव गांव शीतला के स्थानक, मंदिर मिलते हैं। चाटसू, वल्लभनगर, सागवाड़ा आदि में मध्यकालीन मंदिर मिलते हैं।
है न चेचकी की देवी शीतला की विश्वयात्रा की रोचक कहानी। हमारे यहां तो होली के दहन के दूसरे दिन से लेकर सात दिनों तक रोजाना महिलाएं उठते ही शीतला माता को ठंडी करने जाती है, इन दिनों को ही अगता मानकर उनका पालन करती हैं... एक व्याधि के शमन के लिए देवी की पूजा की मान्यता हमारी आस्था की पगडंडियों को मजबूती देती दिखाई देती है।
पूतना - राक्षसी या चेचक !
होली के दिनों में पहले बच्चों को चेचक हुआ करती थी। अब तो चेचक का उन्मूलन हो गया मगर खसरा के नाम से कहीं कहीं आज भी ऐसा सुना जाता है। बहुत भंयकर व्याधि थी। आंखे चली जाती, चेहरे विभत्स हो जाते। लोग आज तो वह कहावत भूल गए हैं जबकि कहते थे - है तो वह चांद का टुकडा, मगर चांद के साथ तारे हैं। यानी मुंह पर चेचक के वण है।
चेचक को ही पूतना कहा गया है। मगर, हम यही जानते हैं कि कंस के राज में भगवान् कृष्ण को मारने के लिए पूतना पठाई गई थी और उसने जब दूध पिलाया तो कृष्ण ने उसका वध कर डाला.... इस कहानी को कितना रस ले लेकर सुनाया जाता है, कोई ये नहीं कहता कि कृष्ण ने इस बीमारी के उन्मूलन का प्रयास किया। हरिवंश, विष्णुपुराण आदि के आधार पर यही वर्णन भागवत में भी लिया गया है। आश्चर्य है कि यह एकमात्र बीमारी है जो कृष्ण को हुई थी, मगर उस पर उन्होंने विजय पा ली थी। इसको बीमारी के रूप में लिखा ही नहीं गया
शायद यह पहला संदर्भ है जबकि चेचक के उन्मूलन का प्रयास हुआ हो, मगर इससे पहले रावण के राज में भी पूतना का प्रकोप था। रावण के नाम से जो आयुर्वेदिक ग्रंथ मिलते हैं, उनमें पूतना के प्रकाेप पर शमन के उपाय लिखे गए हैं। यानी रावण के राज में इस बीमारी के शमन पर पूरा जोर दिया जाता था ताकि बच्चे स्वस्थ, मस्त और प्रशस्त रहें तो देश का भविष्य ठीक रहेगा। आयुर्वेद के कोई भी प्राचीन ग्रंथ उठाइये, पूतना के उपाय लिखे मिल जाएंगे।
कई नामों और भेदों वाली होती थी पूतना। दो चार नाम तो मुझे भी याद आ रहे हैं जिनको हम बचपन में पहचाना करते थे - बडी माता, छोटी माता, बोदरी माता, सौकमाता, अवणमाता, झरणमाता, मोतीरा वगैरह। इन सब को लक्षणों के अनुसार पहचाना जाता था। मंदोदरी ने रावण से कहा था कि ये मातृकाएं बालकों को अपनी चपेट में ले लेती है। नन्दना, सुनन्दा कंटपूतना, शकुनिका पूतना, अर्यका, भूसूतिका पूतना, शुष्करेवती वगैरहा। रावण ने तब कहा -
तृतीय दिवसे मासे वर्षे वा गृह़णाति पूतना नाम मातृका तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वर:। गात्रमुद्वेजयति स्तन्यं ऊर्ध्वं निरीक्षते। (रावणसंहिता, बाल औषधि विधान)
वास्तु के लिए 81 या 64 पद का आधार तैयार होता है, उसमें पिलीपिच्छा, चरकी, अर्यमा, पापाराक्षसी, विदारिका, स्कंद, जृम्भा और पूतना को गृहयोजना के बाहर ही रखकर पूजन किया जाता है। सभी वास्तु ग्रंथों में उसका जिक्र आया है, वास्तु पद न्यास में उसको भूूलाया नहीं जाता ताकि घर में रहने वालों को कभी ये बीमारी नहीं हो। इसको लाल रंग के भात से पूजा करके मनाया जाता है, क्यों, इसलिए कि उसके प्रकोप के दौरान लाल चावल ही कभी खाए जाते थे। वे सब बातें हम सब भूल गए।
रही बात पूतना की, वह हमें सिर्फ इसलिए याद है कि उसको कृष्ण ने मारा था। केवल एक कहानी की शक्ल में। और, उसकी तस्वीरें, मूर्तियां, चित्र आदि भी इस प्रसंग को जीवंत बनाए रखते हैं। कभी कभी प्रसंग के पार जाकर भी हम नए सत्य पर विचार कर सकते हैं।
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